भारत के महान कवि सुरजीत पातर का पार्थिव शरीर आज पंचतत्व में विलीन हो गया.
कुछ घंटे पहले ही उनके अंतिम दर्शन कर लुधियाना से लौटी हूं. पिछले दो रोज़ से मन भारी है. मेरी मेज पर पिछले तीन-चार दिनों से कागज़ों के दो-तीन छोटे बड़े पुलिंदे रखे हैं. इनमें मेरे द्वारा हाल ही में हिंदी में अनूदित की गईं सुरजीत पातर की मां बोली- ‘पंजाबी’ पर रचित कविताएं हैं.



सुजीत पातर से मेरा परिचय कॉलेज के दिनों में उनकी कविता के माध्यम से हुआ था. पंजाब यूनिवर्सिटी में नौकरी लगने के बाद उन्हें कई बार चंडीगढ़ में कवि गोष्ठियों में सुना. लेकिन व्यक्तिगत रूप से उनसे मेरा पहला परिचय सन 2006 में विश्व पुस्तक मेले में फ्रैंकफर्ट में हुआ, जहां मुझे सौभाग्य से उनके साथ कई घंटे बिताने का अवसर मिला. मैं उनसे देर तक उनकी कविताओं के विषय में बात करती रही और फिर वह बातचीत एक साक्षात्कार के रूप में दैनिक भास्कर में प्रकाशित हुई. इसके बाद उन्हें फिर से कई बार सुनने व उनसे मिलने का मौका मिला. जब भी मुलाकात होती वह बड़ी सहृदयता से मिलते.
मैंने दो साल पहले उनकी कविताओं का हिंदी में अनुवाद करने की इच्छा प्रकट की तो उन्होंने सहज ही स्वीकृति दे दी, लेकिन उन्हें अनुवाद के लिए कविताओं का चयन करने का समय ही न मिला. इस बीच दो बरस बीत गए. मैं जब कभी भी उनसे मिलती, उन्हें यह बात याद दिलाती.

इस साल जनवरी में वह एक सेमिनार के सिलसिले में पंजाब यूनिवर्सिटी आए तो मैंने उनसे
कहा,” मुझे आपकी मां बोली (मातृभाषा) पर आधारित कविताएं बहुत पसंद है और मैंने आपकी ऐसी कुछ कविताएं पढ़ी हैं. क्या आपको याद है कि आपकी ऐसी कितनी कविताओं का अनुवाद हो चुका है. आप चाहें तो मैं उनका अनुवाद करना शुरू कर सकती हूँ”
मेरी बात सुनकर वह चुप हो गए, और फिर कुछ क्षण सोच कर बोले-” मुझे एक अच्छा आईडिया आया है. अच्छा रहेगा कि आप मेरी सिर्फ मां बोली पर आधारित कविताओं का ही हिंदी में अनुवाद कीजिये. मेरे लैपटॉप पर मां बोली से संबंधित कुछ कविताएं पड़ी हैं जो कि मैं तुरंत आपको ईमेल पर भेज सकता हूं और आप अनुवाद का काम शुरू कर सकती हैं.’
और सच में एक दिन बाद ही मुझे ईमेल पर उनकी पंजाबी में छपी अठारह कविताओं का एक फोल्डर प्राप्त हुआ. मेरे आश्चर्य व खुशी का ठिकाना न रहा और मैंने बड़े उत्साह व मनोयोग से उनकी कविताओं का अनुवाद करना शुरू कर दिया. फरवरी माह में हमारी फोन पर कई बार लंबी बात हुई . इस बीच उन्हें मां बोली-पंजाबी पर रचित अपनी दस बारह कविताएं और मिल गईं और उन्होंने वे कविताएँ भी मुझे अनुवाद के लिए भेज दीं .
वह पिछले महीने तीन अप्रैल को मेरे घर आए और लगभग तीन घंटे मेरे यहां रुके. मेरे लॉन के एक कोने में बड़ी सी गोल क्यारी में खिले गुलाबों की बहार से उनका चेहरा खिल उठा और वह धीरे-धीरे चलते हुए गुलाबों की क्यारी के किनारे जाकर खड़े हो गए और फूलों को बड़े प्यार से निहारते हुए बोले-“ वाह! कमाल है. इतने सुंदर गुलाब मैंने बहत समय बाद देखे हैं”
उन्होंने बड़े चाव मेरे यहां संग्रहीत कलाकृतियों को देखा और मेरे घर के कोने -कोने को सराहा.
वह हर कलाकृति के बारे में बड़े विस्तार से पूछते रहे और उन्हें बड़े गौर से देख आनंदित होते रहे. इस बीच कई तरह की बातें होती रही.
बातों के सिरे खुले थे, धरती की गोद से लेकर से लेकर आकाश के अनंत विस्तार तक फैले हुए. बातें मानवीय संबंधों, प्रकृति, प्रेम, कविता, अकेलापन व भाषा के गंभीर मसले से जुड़ी थीं.
न जाने कब शाम ढल गयी.
चाय के दौरान वह बोले-,” मैं यहाँ आकर एकदम अभिभूत हूँ. यह वातावरण मेरे मन मस्तिष्क पर पूरी तरह छा गया है. मैं इसी भाव में डूबा घर लौटना चाहता हूँ. काम के लिए किसी और दिन आऊंगा.”
इस मुलाकात के बाद हमने पंजाब आर्ट कौंसिल के उनके कार्यालय में दो बार अनूदित कविताओं पर चर्चा की. काम समाप्त हो चुका था. वह किताब के शीर्षक के बारे में सोच रहे थे.
तीन मई की मुलाकात के बाद उन्हें आठ मई को मेरे यहाँ आना था. वे एक बार सारी अनूदित कविताएं मुझसे सुनना चाहते थे और किताब का शार्षक भी तय करना चाहते थे. वे आठ मई को चंडीगढ़ आए पर मीटिंग्स में देर तक व्यस्त होने के कारण मेरे यहाँ नहीं आ सके.
मैंने चार बजे के आसपास फ़ोन किया तो बोले,” आज आना संभव न होगा, लेकिन मैं सोमवार, तेरह मई को आपके यहाँ ज़रूर आऊंगा. उस दिन और कोई काम नहीं रखूँगा’

तेरह मई आई पर सुरजीत पातर मेरे यहाँ नहीं आए.
वह दस मई की सुबह ही दुनिया को अलविदा कह गए.
भारतीय काव्य जगत का एक सूर्य सदा के लिए अस्त हो गया.
आज तेरह मई है. उन्हें आज मेरे यहाँ आना था, लेकिन नियति को कुछ और ही मंजूर था.
बड़े भारी मन से अपने श्रद्धेय कवि के अंतिम दर्शन कर कुछ घंटे पहले ही लुधियाना से घर लौटी हूँ.
मेरी मेज पर पातर की माँ बोली -पंजाबी पर लिखी मेरे द्वारा हिंदी में अनूदित कविताओं के तीन ड्राफ्ट पड़े हैं.
कुछ बिखरे तो कुछ सहेजे हुए से .
पातर नहीं रहे, लेकिन उनकी कविताएँ हमेशा ज़िन्दा रहेंगी.